चरवाहा विद्यालय की नाकामी और तेज प्रताप व तेजस्वी की सियासी हैसियत

जहाँ आम तौर पर भीड़ की कोई शिनाख्त नहीं होती वहीँ लोकतंत्र में तादाद की अपनी हैसियत होती है और यहाँ सारा खेल आंकड़ों पर आ कर ठहर जाता है,नंबर गेम में  ही सारे समीकरण बनते और बिगारते हैं,बिहार इलेक्शन के रिजल्ट में महागठबंधन की जीत की फिक्र में सब से बड़ी बात जो कई लोगों से सुनने को मिली वह ये थी की लालू यादव की सीट नितीश कुमार से कम आनी चाहिए वर्ना लालू अपनी मनमर्ज़ी करने लगेंगे और नितीश ठीक तरह से काम नहीं कर पायेंगे लेकिन डर जिस बात का था वही हुआ..

90 के दशक में बिहार जातिवाद राजनीती से जूझ रहा था और मुसलमानों में भागलपुर दंगे का ताज़ा ताज़ा खौफ था, जमशेदपुर में मुसलमान औरतों और बच्चों से भरे बस में लगी आग की चिंगारी अभी बाकी थी,मंडल कमीशन की रिपोर्ट आ चुकी थी अग्रे और पिछड़े की राजनीती का भरपूर माहौल बन रहा था, पहली बार देश ने ब्राह्मणों को अपने हक़ के लिए रोड पर निकलते देखा था,दिल्ली यूनिवर्सिटी में रिजर्वेशन के खिलाफ नारा लगाते हुए लड़किओं ने अपने हाथों में जो प्ले कार्ड उठाया था उस से साफ़ पता चलता है की उस वक़्त देश में न सिर्फ राजनितिक परिदिरिश्य बदल रहा था बल्कि एक नए सामाजिक परिवर्तन का उदय भी हो रहा था..
लोहिया और जय प्रकाश के विचारों का झंडा ढोने वालों में लालू यादव यादव की राजनितिक मह्ताव्कंक्षा की बिसात बिछ चुकी थी..और लालू इस खेल में पूरी तरह से कामयाब हो गये थे.
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जगन्नाथ मिश्र को हटा कर लालू यादव बिहार के मुख्यमंत्री बने तो बिहार और देश की राजनीती में एक बड़े बदलाव की शुरुआत हुई और लालू यादव ने बड़े चालाकी से इस बात का शोर मचाया की उन्होंने ने एक ब्राह्मण की कुर्सी छिनी है, हेलोकोप्टर (जिसे लालू उड़न खटोला कहते थे) से अपने गाँव फुलवरिया जा कर लालू ने अपनी माँ को कहा था “देख माई तुम्हारा बेटा बिहार का राजा बन गया”
वही दौर था जब लालू अपने उड़नखटोला को खेत खलिहानों में उतार देते थे,भैंस चरवाहों से मिलते थे और किसी दिन चरवाहा विद्यालय खोलने का न सिर्फ एलान किया बल्कि बिहार में जगह जगह चरवाहों के लिए स्कूल दिखाई देने लगा,अगर लालू यादव की राजनितिक इच्छा शक्ति मज़बूत रहती तो ये एक क्रन्तिकारी काम हो सकता था पर लालू अपने उड़नखटोला पर उड़ते रहे और बिहार की सड़कें गड्ढे में तब्दील होती रही,
सामाजिक न्याय के नारे बुलंद करने वाले लालू यादव अपने ठेठ गँवाई अंदाज़ में जनसभाओं को सम्भोदित करते और अपार भीड़ उनकी मकबूलियत का सबूत थे, उस वक़्त इवेंट मैनेजमेंट जैसी कोई चीज़ बहुत चलन में नहीं थी, लालू का अंदाज़ आम लोगों को अपने बीच का आदमी होने का एहसास दिला गया ज़ाहिर है उस से पहले किसी नेता ने इतने करीब से अवाम की जुबान में बात नहीं की थी और लालू ने इसका भरपूर फायदा उठाया..
ये भी बहुत बड़ा सच है की पिछड़ों के मुंह में ज़बान देने का बड़ा काम उसी समय हुआ और मुसलमानों को उनमे एक मसीहा नज़र आने लगा, भारतीय लोकतंत्र में देखा जाये तो सब से बे बस और पिछड़ा हुआ मुस्लमान ही है,90 में वही मुस्लमान लालू यादव के साथ आ गए जिस के लिए अभी अभी जगन्नाथ मिश्र मौलाना जगन्नाथ थे,उर्दू को बिहार की दूसरी सरकारी ज़बान का दर्जा देने वाले जगन्नाथ मिश्र को मौलाना जगन्नाथ कहने वाली उर्दू आबादी लालू यादव के बर्थडे पर उर्दू दिवस मानती है..
बिहार की राजनीती का ये सिलसिला करीब १५ साल चलता रहा लालू यादव केंद्र की राजनीति में बड़े होते चले गये..बिहार की शिक्षण वेवस्था चरमरा गयी, बिहार में अंग्रेजी की अनिवार्यता बोर्ड एग्जाम से ख़त्म कर दी गयी लालू यादव के बच्चों की स्नाख्याओं पर कई लतीफे बनते रहे और देखते ही देखते सारे बच्चे बड़े हो गए और आज उनका दोनों बेटा बाप से भी कम उम्र में किसी राजनितिक संवेधानिक पद पर आसीन हो गया लेकिन राबड़ी देवी को जा कर तेज प्रताप और तेजस्वी ने यकीनन ये नहीं कहा होगा की देखो माँ हम दोनों भाई बिहार के राजा  बन गए कयोंकि लालू यादव की माँ की तरह न तो राबड़ी देवी किसी फुल्वारुया जैसे गाँव में रहती हैं और न ही राबड़ी देवी के लिए तेज प्रताप और तेजस्वी का केवल मंत्री बनना गवारह होगा..मौजूदा राजनितिक परिस्तिथि में लालू यादव मजबूर हैं वर्ना तेजस्वी का मुख्य मंत्री बनना तय था..

तब मुस्लमान भागलपुर दंगे से खौफ्ज़दः थे और आज दादरी जैसी घटनाओं से मुसलमानों की वापसी लालू यादव की तरफ हुई है..
अब देखने वाली बात ये है की सामाजिक न्याय का नया अध्याय नितीश कुमार के विकाश के साथ कैसे ताल मेल कर पाता है ..

By- तारिक एकबाल

Team:-Anaf's Group
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